Friday, November 7, 2008

मेरी रेल यात्रा

इस बार दीवाली कि छुट्टी के बाद मैं भारतीय रेल के भ्रमण का आनंद ले(या दुख झेल)रही थी। मुझे तीन दिन तीन अलग-अलग रेल गाडियों में सफ़र करना था मगर, अक्सर की तरह कोई भी गाडी समय पर नहीं थी - जैसे कि समय पर होना एक राष्ट्रीय अपराध हो।
अंग्रेज़ी में "IST" का मतलब होता है "Indian Standard Time" पर उसका ज़्यादा सही मतलब निकलता है - "Indian Stretchable Time"।
पर एक बात माननी होगी कि इतनी बडी जनसंख्या और आकार वाले देश में इतना सस्ता जन-यातायात का साधन होना एक बहुत बडी उपलब्धि है।
परंतु ये और भी अच्छा होगा जिस दिन सारी रेल गाडियां समय पर चलने लगेंगी। वो कहते हैं ना "ये दिल मांगे मोर"!
तो पहले स्टेशन पर इंतज़ार करते हुए मुझे मेरी मां ने एक बडा मज़ेदार किस्सा बताया जो कि उंहोने दार्जीलिंग जाते हुए सुना था। उनकी गाडी का नाम था "महानंदा एक्स्प्रेस"।वो गाडी करीब ८ घंटे देरी से चल रही थी। एक और परिवार भी उनके बगल में इसी गाडी के इंतज़ार में बैठा था, जिसमें एक छोटी बच्ची थी - जो कि बहुत दुखी हो चुकी थी। उस बच्ची के मुंह से बडा सही उदगार निकला - "इसका नाम महानंदा एक्स्प्रेस नहीं - महागंदा एक्स्प्रेस होना चाहिये"!
खैर राम राम करते उस गाडी से हम अगले गंतव्य पे पहुंचे। उसके बाद वाली गाडी में हालांकि हमने तीन महीने पहले ही आरक्षण करवा लिया था लेकिन हमें केवल एक ही "बर्थ" मिल पायी। बाकी "वेटिंग लिस्ट" में ही रहीं। गाडी इतनी खचाखच भरी हुई थी कि "टी टी" ने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी पर वो अच्छा व्यक्ति था और उसने हमारी परेशानी को और नहीं बढाया और हमें उसी एक बर्थ पर यात्रा करने कि अनुमति दे दी (जबकि नियमनुसार यदि आपको आरक्षण ना मिले तो आप उस डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते)।
उस गाडी में "पैंट्री कार" से खाने पीने का सामान लाने वाला एक "वेटर" एक अलग अंदाज़ में अपना सामान बेच रहा था - वो ऐसे नहीं बोल रहा था "चिप्स ले लो" जैसे कि आमतौर पर विक्रेता बोलते हैं। उसका कहना था "हज़रत निज़ामुद्दीन से आया हूं, यशवंतपुर तक खिलाता जाउंगा। खाते रहो, मुस्कराते रहो। और संसार में है क्या?"।
बिल्कुल सही दार्शनिक विचार था कि "और संसार में है क्या"। अब मुझे नहीं लगता कि उसने चार्वाक दर्शन पढा होगा पर उसने भी वही बात बोली जो चार्वाक जी इतने वर्ष पूर्व लिख गये हैं।
कब किसके द्वारा आपको ज्ञान मिल जाये - आप अनुमान भी नहीं लगा सकते।
अब विक्रेताओं की बात निकली है तो मुझे एक पुराना किस्सा याद आ गया जब मैं एक बार बैंगलोर से दिल्ली की ओर जा रही थी। तो उस गाडी में सुबह पांच बजे से ही चाय-काफ़ी लेकर वेटर आ जाते हैं। अब पता नहीं क्युं वो जब "काफ़ी काफ़ी काफ़ी" बोलते हैं तो वो सुनाइ देता है "कापी कापी कापी"। तो एक बच्चा भी जाग रहा था (अब संयोग वश वो सरदार था जिनको लेकर इस देश में उसी प्रकार बहुत सारे किस्से होते हैं जैसे इंग्लैंड के लोग "स्कोट्स" के बारे में बनाते हैं)। तो उसने उस वेटर से सवाल पूछा - "लाइन वाली है कि बिना लाइन वाली?"। कहने कि आवश्कता नहीं है कि सुबह सुबह सबको "laughter therapy" मिल गयी।
इस यात्रा पर वापस आती हूं। तो अब हैदराबाद पहुंचने पर के बाद अगली गाडी मुझे बैंगलोर के लिये लेनी थी। वो यात्रा बिना किसी परेशानी के बीत गयी।
सिर्फ़ एक बात और बतानी रह गयी आप सब को - कि उसी एक समान के लिये जो मेरे पास था - एक प्लेट्फ़ोर्म से दूसरे पे जाने के लिये मुझे तीन कुलियों को भोपाल में २० रुपए, हैदराबाद में ३० और बंगलोर में ६० रुपए देने पडे - जबकि सबसे कम रास्ता बंगलोर वाले कुली को तय करना था। उस हिसाब से मुझे ऐसा लग रहा था कि बंगलोर की अपेक्षा बाकी जगहों के कुलियों के साथ मैंने नाइंसाफ़ी कर दी है - हालांकि वो सरकार द्वारा प्रति किलो के हिसाब से तय किये गये रेट के अनुरूप ही था। पर बंगलोर में एक अलिखित "बंगलोर शुल्क" लगता है जिसके बारे में नये आने वाले लोगों को तो पता ही नहीं होता है और इसलिये उनको ज़ोर का झटका लगता है वो भी ज़ोर से (उनको सलाह है कि साथ में मिरिंडा ले के चलें)।
बाकी बातें बाद में । तब तक के लिये "थोडा इंतज़ार का मज़ा लीजिये" - भारतीय रेल के लिये ये "लोगो" कैसा रहेगा - इस पर विचार करें ः-)।