Monday, July 13, 2015

किस्मत

चराग़ जला के रखे थे किसी ने राहों में,   
की लग जाए ना ठोकर किसी को, 
ये तो राहगीर की किस्मत थी, 
कि ख़ुदा भूल गया देना चश्म में नूर को !

 

Sunday, July 5, 2015

घर

एक घर बनाने को निकले फिर से
तो कितनी सारी बातें निकलीं,
एक बक्से में बंद थीं जो कल तक,
आज वो सारी तसवीरें निकलीं।

कुछ चाभियाँ मिलीं और कुछ ताले,
और मिलीं फिर से कुछ  पुरानी यादें,
छुप गयी थीं जो वक़्त के परदे में,
आज फिर से सामने आ गयीं वो बातें।

जो चीज़ें छुपा दी थीं चोटें भुलाने को,
आज फिर निकल आईं टीस उठाने वो,
फेंक देना ही अच्छा होगा उनको वरना,
एक दिन फिर कुरेदेंगी भर गए ज़ख्मों को।

पर कितनी सारी अच्छी यादें भी तो हैं,
जो नए दोस्त बनाये रहते हुए इस घर में,
आना होगा मिलने उनसे जो याद करेंगे,
ऐसा सोच के जा रहे हैं इस मंज़र से। 

सामान देख के लगता है क्या इकट्ठा किया,
पर पीछे छोड़ जाने का दिल भी नहीं करता,
शायद इन बेजान चीज़ों में ज़्यादा वफादारी है,
- उनका मन अपने मालिक से नहीं भरता।

चलते हैं दूसरे मकान को और उसे घर बनाते हैं,
एक नयी आस लिए जाते हैं वहां,
कुछ और पन्ने लिखेंगे अब इस किताब के,
बंद करते हैं इस किस्से को अब यहाँ।