Thursday, October 30, 2008

भारत एक यात्रा - युगों की

मैं जब भी टी वी पर भारतीय जीवन पर दिखायी जाने वाला कोई वृत्तचित्र देखती हूं तो मुझे हमेशा एक ही अनुभुति होती है।
वो ये कि पिछ्ले हजारों वर्षों से(चलिये हडप्पा कालीन सभ्यता के समय से)लेकर आज तक, हमारे रहने-सहने और सोचने-विचारने के ढंग में कितना नाम मात्र का परिवर्तन हुआ है।
अब चलिये विवेचना करते हैं कि ऐसा मुझे केवल प्रतीत होता है या वास्तव में ऐसा है।
पाठक कृप्या ये ध्यान रखें कि मैं किसी प्रकार से ये कह्ने की कोशिश नहीं कर रही हूं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। ये मात्र पुराने युग से आज के भारतीय जीवन शैली की एक तुलना करने का प्रयास है।
तो शुरुआत करते हैं पारिवारिक जीवन से। तब भी हमारे समाज में पाश्चात्य देशों के समान किसी प्रकार कि "सोशल सेक्योरिटि" कि व्यवस्था नहीं थी और आज भी नहीं है। तो कुल मिला के लोग पह्ले अपनी संतानों का पालन पोषण करते थे और बडे होने पर वो संतानें अपने माता पिता का। वही आज की भी सामाजिक व्यवस्था है।और शायद यही कारण है हमारे समाज में आज भी पुत्र-संतान की इच्छा रखने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है। पुराने युग से ही भारतीय स्त्रियों को "पुत्रवती" होने का आशीर्वाद दिया जाता है जो कि इसी सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है।
अब इस बात से आगे बढते हैं और अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों पे दृष्टि डालते हैं। तो हमारी प्रातः तब भी सूर्य नमस्कार से होती थी और आज भी भारत के बडे शहरों में बसने वाले ना भी करते हों तो ग्रामीण-जन तो अवश्य ही इसी प्रकार दिन का आरम्भ करते हैं। बल्कि शहरों में रह्ने वालों में भी आजकल योग के प्रति रुचि जागृत होने के कारण, सूर्य-नमस्कार जैसी प्राचीन परम्परा जैसे फ़िर से जीवित हो उठी है।
इसके बाद ध्यान देते हैं अपने धर्म कर्म की ओर - तो जैसा कि वर्षों पूर्व था, उसी प्रकार हम आज भी प्रकृति की वस्तुओं की पूजा करते हैं। (अब यहां पर मैं इस बात को नहीं नकारूंगी कि भारत में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या अभी भी सबसे अधिक है और धर्मों की अपेक्षा। तो हम आज भी गाय को, नदियों को, पीपल,तुलसी, यहां तक कि बंदर को पूजते हैं, जैसे कि तब, यहां तक कि पत्थर को भी शालिग्राम (ईश्वर)मानते हैं।
अधिकतर लोग अभी भी उतने ही धर्म भीरु हैं जितने कि तब रहे होंगे जब कि "पोक्स" जैसी बीमारी को देवी का प्रकोप मान कर उसे नाम दिया था "माता" - "चिकन पोक्स" यानि "छोटी माता" और "स्माल पोक्स" यानि "बडी माता"! चंद उदाहरण देती हूं - आज भी अधिकतर लोग रक्षासूत्र (कलावा) बंधवा कर स्वयम को हर विपत्ति से सुरक्षित समझते हैं(चाहे गाडी चलाते हुए हेल्मेट/सीट बेल्ट जैसी छोटी सी सावधानी भी ना ली हो)। यदि मंदिर से प्रसाद में फूल कि एक पंखुडि भी मिली हो तो उसे फ़ेंकने से डरते हैं कि कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाये (चाहे प्रसाद मिट्टी में गिर के गंदा हो जाये उसे भी पोंछ कर खा लेंगे कि प्रसाद है, लेकिन यदि सामान्य भोजन साफ़ जगह पे भी गिरा हो तो उसे "जर्म्स" के डर से फेंक देते हैं )।
अब एक दूसरे दृष्टिकोंण से इसे धर्म के प्रति गहरा विश्वास कहिये या अज्ञानता या फ़िर जीवन का फ़लसफ़ा - मगर उसी के सहारे यहां के लोग थोडे में भी संतोष रख कर, बडे से बडे दुख भी सह जाते हैं, जिनके कारण पाश्चात्य जगत में लोगों को "मेंटल ब्रेक्डाउन" तक हो जाता है। यदि आज किसी के पास खाने को नहीं है तो भी ऐसा बहुत ही मुश्किल होगा कि वो कल के बेहतर होने की आशा ना करें। लेकिन वहीं अगर "नाक कट" गयी (अर्थात सम्मान चला गया)तो वे आत्महत्या तक कर लेंगे। (इस "सम्मान" के विषय में मुझे अभी कुछ ही समय पह्ले पता चला है कि चीन के निवासियों का भी यही विचार है - कि नाक गयी तो सब गया।)
वास्तव में भारत में सामाजिक जीवन, मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन से अलग नहीं है। सामान्तः लोग जो भी करते हैं, उसमें सामाजिक अनुमति होना नितांत आवश्यक है। यदि कोई अपनी इच्छानुसार वो कार्य करना चाहे जो समाज द्वारा मान्य नहीं है तो उस व्यक्ति में बहिष्कृत हो कर जी सकने का दम भी होना चाहिये। वो भी एक अत्यंत जटिल कार्य है क्युंकि आप के साथ आपका परिवार जुडा होता है और सम्मान मात्र आपका नहीं जायेगा अपितु लोग आपके परिवार का भी लोग जीना मुश्किल कर देंगे।
लेकिन वहीं इसी सामाजिक व्यवस्था के कारण बहुत से ऐसे कार्य लोग नहीं करते जिनको करने के स्वयम पे ही दुष्परिणाम हों - और इस परिणाम में मैं सम्मान- निरादर की बात नहीं कर रही हूं।
अब आगे बढ्ते हैं अपने रोज़गार की ओर। तो आज भी भारत कृषि प्रमुख देश है।
त्योहारों को देखें तो अधिकतर त्योहार या तो रबी या खरीफ़ की फ़सल की कटाई के उत्सव हैं अथवा मौसम के बदलने के - उनके साथ चाहे कहानी कुछ भी जोड दी हो। जैसे कि पह्ले होता था वैसे ही आज भी विवाह के लिये मुहुर्त निकालते हैं तो वो या तो सर्दी की फ़सल के काटने के बाद का होता है अथवा गर्मी की फ़सल काटने के बाद का - क्युं? क्युंकि कृषि प्रधान देश में उसी समय लोगों के हाथ में धन और समय आता है। अब वो परम्परा में आ गया है जो कि पहले आवश्यकता थी।
इसी प्रकार यदि हम और भी कई छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि हम वो आज भी क्युं करते जा रहे हैं जो युगों पहले का भारतीय किया करता था - जबकि उसकि आवश्यकता अब समाप्त हो चुकी है।
परंतु हम पुरानी व्यवस्था को तब तक चलाते रहते हैं जब तक कि उस से हमें कोई नुक्सान ना हो या फ़िर कुछ नया करने के लिये कोई और बहादुर ना कमर कस ले। हर विषय पर अधिकतर लोगों का विचार होता है कि हम तो सामान्य लोग हैं, हम क्युं अपने शांति से चल रहे जीवन में खलल डालें।
अब मैं ये कहने की स्थिति में नहीं हूं कि इसी कारण हम इतने वर्षों से आज तक बने हुए हैं। पर हो सकता है कि ये भी एक कारण हो!
अगली प्रस्तुति तक - सोचते रहिये ।

Thursday, October 23, 2008

मस्ती की पाठ्शाला

आज मैनें एक मित्र को "मेसेंजर" पर "हेलो" लिखा तो उधर से जवाब आया "हांजी"। इस पर मुझे अपने पिता द्वारा बताया गया एक किस्सा याद आ गया।
वो बात उनके पाठशाला के दिनों की है। एक बार उनकी कक्षा में मास्टर जी पढाते जा रहे थे। अब जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि कक्षा में आंखें खुली रख कर सोने का अनुभव कैसा होता है, तो यह किस्सा उसी अनुभव की एक कहानी है। तो उस कक्षा में एक लड्का अर्धनिंद्रा में था। अचानक मास्टर जी को लगा लोगों को जगाना चाहिये। तो उनहोंने उसी लडके को बोला -"सुनो"।
वो लड्का हडबडा के उठा - "हां जी?"। तत्पश्चात मास्टर जी बोले - "मैनें क्या पढाया - बताओ"। तो उस लडके के मुंह से निकला - "का जी"(क्या जी)। मास्टर जी भी मस्त थे, बोले "हां जी, का जी, सब बडे पाजी"। पूरी कक्षा ज़ोर से हंस पडी। और ये किस्सा इतना मशहूर हो गया कि आज से करीब ४० साल पह्ले हुए एक छोटे से गांव के एक छोटी सी पाठ्शाला के उस किस्से को आज पढ कर आप भी हंस रहे होंगे ः-)।
इसी प्रकार हम सब की छात्र जीवन कि कुछ ऐसी छोटी-बडी घट्नायें होती हैं, जो कि हमेशा के लिये मन में रह जाती हैं। उंहें याद कर के मुख पर वर्षों बाद भी एक मुस्कान आ जाती है। कुछ ऐसी कि जिन पर ये कहावत लागू होती है - "गूंगे का गुड"(जिसका तात्पर्य ऐसी बात से होता है जिसे सिर्फ़ सोचने वाला ही सोच-सोच के आनंद ले सकता है)- ऐसी बातें जिसे याद कर के वही लोग आनंद ले सकते हैं जो खुद उस समय और स्थान पर थे जब वो घटना हुई होगी। और कुछ ऐसी बातें जिन को आप दूसरों के साथ बांट सकते हैं और उन को भी उतना ही आनंद आयेगा जितना कि आपको घटना के घटित होने पर आया होगा।
एक तीसरी श्रेणी भी है - वो जिनके घटने पर तो आप को लगा होगा कि ये क्या हो गया और आपको लज्जित होना पडा अथवा आप को लगा ये तो बहुत खराब हुआ - परंतु जब आप पीछे पलट कर उस समय को देखें, तो वो ऐसी मूर्खतापूर्ण घटना लगेगी कि आप हंस पडेंगे।
अब मुझे अपने छात्र जीवन की ऐसी ही एक-दो घट्नायें याद आ रही हैं।
प्रथम श्रेणी कि बात छोड देते हैं - क्युंकि उसका आनंद लेने के लिये मुझे बहुत सारी भूमिका बांधनी पडेगी।
तो दूसरी श्रेणी की बात बताती हूं।
जब मैं नवीं कक्षा में थी, तब हमें "जीव विज्ञान" के पाट्यक्रम के अनुसार, मेंढक काटना होता था। अब कक्षा में हर कोई इतना बहादुर तो नहीं था कि मेंढक को छू भी सके - काटना तो बहुत दूर कि बात थी। तो हमारी टीचर हमारी हिचक मिटाने के लिये बोल रही थीं कि हमें उस बेहोश मेंढक को अपने हाथ में लेना चाहिये। तो इसके लिये उनके शब्द थे "hold this rana in your hand" (मेंढक का वैज्ञानिक नाम "राना टिग्रिना होता है)। अब हमारे एक मास्टर जी थे जिनका नाम "राना" था। अचानक वो उधर से निकले तो उंहोंने प्रयोगशाला में झांक लिया। उस समय तो हमने किसी तरह अपनी हंसी रोकी - पर उनके जाते ही जो ठहाका लगा कि जीव विज्ञान वाली टीचर भी अपनी हंसी नहिं रोक पायीं।
तीसरी श्रेणी का भी एक किस्सा लिखने का मन तो था लेकिन इस अंग्रेज़ी "कीबोर्ड" से हिंदी लिखना थोडा कष्ट्कारी है। तो वो अगली बार के लिये।
तब तक - हंसते और हंसाते रहिये।

Wednesday, October 22, 2008

आधुनिक भारत

आजकल गांवों तक आधुनिक तकनीक किस सीमा तक पहुंच गयी है, इसका आभास मुझे तब हुआ जब मुझे ये किस्सा बताया गया - इलाहाबाद के एक विवाह के अवसर पर ,जैसा कि बडी-बूढी औरतें किया करतीं हैं, एक दादी मां की दहेज देखकर टिप्पडी थी - "का लल्ला, समोसा गर्मावे वाली मसीन नाहिं मिलि का?"।
अब आप सोचेंगे कि ये कौंन सा नया यंत्र है - तो ये मैं बात कर रही हूं "माइक्रोवेव ओवेन" की।
यदि हम पिछले समय पर दृष्टि डालें तो पता चलेगा कि ये दहेज के बारे में बातें करना भारतीय समाज में बहुत पुरानी परम्परा है। नव वधु का परिवार में कितना मान रहेगा, ये उसके द्वारा लाये गये दहेज पर निर्भर करता था - और आज भी करता है - मुख्यतः तय किये गये विवाहों में ("अरेंज्ड मैरिज"।
परंतु मेरे प्रथम हिंदी ब्लोग का ये विषय नहिं है - मैं विषय से तनिक हट गयी थी ।
तो हम बात कर रहे थे आधुनिक तकनीक का ग्रामों में क्या असर है।
पिछ्ली बार जब मैं दीवाली के लिए घर गयी तो मेरी माँ ने बताया कि मेरी नानी ने मुझसे मिलने कि इच्छा प्रकट की है। अब मेरी नानी जी का घर है इलाहबाद के एक गाँव में जहाँ गए हुए मुझे करीब दस साल हो चुके थे तो मुझे ये सोच कर स्वयं पर रोष हुआ कि मैंने इतने दिनों से ये बात अपने आप क्यों नहीं सोची। सो मैंने चटपट हाँ कर दी। दो दिन घर पर रहने के बाद हम निकले अपनी गाँव यात्रा पर। सबसे पहले हम रेल द्वारा इलाहाबाद के लिए निकले। वहाँ पहुँचने पर एक गाड़ी ले कर हम आगे बढे। अब माँ का विचार था कि चूँकि मुझे अपनी दादी के घर गए हुए भी पांच वर्ष हो चुके थे सो हमें वहाँ भी जाना चाहिऐ। गौर रहे कि मेरी दादी का घर भी इलाहबाद के ही एक दुसरे गाँव में है। तो इस मोबाइल क्रांति के युग में खबर पहुँचाते क्या देर लगती है सो तुरंत अपने ताऊ जी के घर पर सम्पर्क स्थापित कर के बताया कि अगले एक घंटे में हम वहाँ पहुंचेंगे। रास्ते में मिठाइयाँ आदि लेने के लिए रुके तो अब इलाहाबाद से बिना कचौरी खाए आगे बढ़ने को अपराध समझ कर मैंने ऐसा करने से मना कर दिया। चटोरी ज़बान जायके के लिए कुछ भी करवा लेती है। फिर समोसे कचौरी का उत्कोच स्वीकार करने के बाद ज़बान ने आगे बढ़ने कि आज्ञा दी। विषय से थोडा हट्ने के लिये क्षमा करें। थोडी देर में हम मेरे पैतृक गाँव पहुंचे। देखा तो वहाँ ज्यादा कुछ नहीं बदला ।
बस अब खपरैल वाले घरों में पुराने तीन डंडों वाले "एंटिना" कि जगह नए ज़माने के डिश ने ले ली है । बिजली रहे न रहे लेकिन सबके घरों में टीवी और हर किसी के पास मोबाइल ज़रूर है । बढिया है ।
बिल्कुल वैसा ही दृश्य मेरी नानी जी के गांव में भी दिखा। वहां पर घरों में दहेज में मिला हुआ टी वी, फ़्रिज, मिक्सर - सब कुछ दिखेगा। मज़ा ये है कि सब कुछ होने पर भी बहू सिल-बट्टे पे ही मसाला पीस रही दिखेगी - आपने ठीक समझा - बिजली न होने के कारण!
वाह रे आधुनिक भारत - समय के साथ सुख सुविधाओं के सारे साधन खरीद सकने का सामर्थय सबके पास हो गया है - परंतु उनका प्रयोग कर सकने में शायद अभी थोडा और समय लगेगा। "ईंडिया शाइनिंग"।