Sunday, October 28, 2012

तलफ

देखने को जाने कितने नज़ारे हैं इस जहाँ में,
निकल पड़ें तो शायद एक उम्र भी नहीं काफी,
मगर जाने कब गुज़र जाती है वो कुछ काम में,  
और कुछ सिर्फ एक हमराही के इंतज़ार में।

लम्हों को तो बस दौड़ लगाने की होड़ है,
और लम्हा लम्हा करते ज़िन्दगी निकल जाती है,
जाने कितने आये और कितने चले गए बिन जिए,
मगर जहाँ देखो मिलते हैं वही गलती दोहराने वाले।

किस बात की ग़लतफ़हमी है उन मसरूफों को,
कि उनके बगैर रुक जाएगा दुनिया का काम धंधा?
ज़रा आँखों को खोल देखेंगे तो तुरंत दिख जाएगा, 
कि उनके बिना भी अर्श-औ-फर्श में सब कायम है रहता।  

तो फिर क्यूँ नहीं वो कुछ सीखते और ज़िन्दगी जीते हैं,
क्या डरते हैं की कहीं जीने का ना शौक़ आ जाए?
डर है शायद खबर हो जायेगी कि सारी उम्र जाया हो गयी ,
और एहसास होगा कि सिर्फ सांस लेना ही ज़िन्दगी नहीं थी।

 

Friday, October 19, 2012

आदत

जब तनहा खोये होते हैं कुछ ख्यालों में ,
तब कुछ तसवीरें बेसाख्ता आँखों में आ जाती हैं,
एक एक कर के सारी पुरानी बातें,
दिल को फिर तोड़ देने की कोशिश में लग जाती हैं।

पर अब हम भी माहिर हैं इस खेल में, 
अब नहीं चलती चालें तन्हाइयों की,
कि खबर है हमें कि ज़माने में हमदर्द हैं चंद,
बिलकुल कमी नहीं मगर तमाशाइयों की। 

तो अब नहीं पड़ती ज़रुरत ग़म छुपाने की,
क्यूंकि आदत डाल ली है हर वक़्त मुस्कुराने की, 
पलकों के पीछे जितनी भी परछाइयां हैं, 
सख्त हिदायत है उनको चेहरे पे न आने की।





Thursday, October 18, 2012

इंतज़ार

अक्सर सोचा करते हैं कि जिस क़दर हम बेचैन हैं,
क्या उस तरह कोई और भी बेकरार है,
जिसके इंतज़ार में हम जागा करते हैं,
क्या वो भी हमारा उतना ही तलबगार है ?

अन्दर की हलचल से जब मन बेबस हो उठता है,
क्या किसी को देती सुनाई उसकी पुकार है ?
बरसों की संजोई जाने कितनी बातें हैं उसमें,
मगर कोई नहीं है जिसपे उसको ऐतबार है।

मिलने को तो मिलते हैं जाने कितने रोज़ाना,
मगर कमी है सभी में बस उस बात की,
कि उनसे बेफ़िक्र हो के सब कह डालें और,
उनके दिल में भी कुछ क़द्र हो हमारे साथ की।

मगर इस मन को क्या समझायें - ये खुद ही समझदार है,
और शुक्र है की ऐसा भी बुरा नहीं अपना हाल है ,
यकीन है कि जब हालात ख़ुद से नहीं संभलेंगे,
तब वो सामने आ जाएगा, जिसे हमारा ख्याल है ।











सवाल


हज़ारों दिनों की तन्हाइयों में, चंद चोरी किये लम्हे,
क्या काफ़ी हैं एक उम्र  भर के लिए?

जिसे मसरूफियत की आदत हो उसे क्या कहिये,
क्या हासिल होगा मिल के, उससे पल भर के लिए ?

जिन्हें है ज़रुरत एक छाँव की ज़िंदगी की धूप में,
थक के गिर जायेंगे या रखेंगे ताक़त उसे ढूँढने कल के लिए?

बस यूँ ही उम्मीद करते शायद उम्र चली जायेगी,
वो सवाल बस रह जाएगा जब हम होंगे तैयार रुखसत के लिए।
  

Tuesday, July 17, 2012

ग़मगीन

उनकी आँखों में एक सागर बसता है,
पर दिखाई नहीं देता हर किसी को,  
जो ना हो भरोसा इस बात पे तो
सिर्फ दो कड़वे शब्द बोल के देख लो..

नहीं ज़रुरत किसी तीर या तलवार की,
नहीं ज़रुरत किसी ग़मगीन मंज़र की,
सिर्फ एक तेज़ धार जुबां काफी है,
आजमाने को जो बात मैंने कही है..

बात जब सीधे दिल पे लगी होगी,
तो बेसाख्ता उनकी आँखें भर आयेंगी,  
और बाँध कब सागर को रोक सका है,
जो अश्कों को पलकें रोक पाएंगी?

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और तब उन्हें लगेगा बस रोते ही जाएँ,
शायद उसके बाद कुछ सुकून आयेगा, 
बस किसी तरह वो दिल में बसी सारी बातें, 
शायद उन अश्कों के साथ ही रवां हों जाएँ.

मगर वो बस एक ख़याल ही है,
कि सुकून मिलेगा चंद आंसूओं के बह जाने से,
मगर और कुछ तो बस में है नहीं,
तो थोड़ी देर और रो लिया जाए.

Sunday, June 17, 2012

प्राण अथवा ज्ञान?


एक रास्ता है जिधर से मुझे रोज़ निकलना होता है
हज़ारों लोग वहां से रोज़ गुज़रते होंगे
लेकिन एक बूढ़ी औरत वहीँ खड़ी रहती है एक लाठी के सहारे,
इस सोच में कि आज जाने लोग उसे क्या देंगे.

वो सबके सामने हाथ फैलाती है
कुछ लोग अनदेखा कर आगे निकल जाते हैं, कुछ जेबें टटोलते हैं,
कुछ वितृष्णा से देखते हैं और कुछ लोग एक सिक्का दे देते हैं
उनके लिए वो हाथ जोड़ एहसान मानती है.

ये पता नहीं जीने की चाह है या फिर कोई बेबसी,
जिसके सामने आत्मसम्मान की मृत्यु हो गयी,
किस तरह मन को समझाया होगा उसने पहली बार हाथ फैलाने को,
जब  भूख की ज्वाला हर तरह से बेकाबू हो गयी.

क्या है ये प्राण शक्ति जो हर जंतु  के अन्दर  है,
जो कि एक समान है चाहे बाह्य तन हो सूक्ष्म या विशाल,
यदि जीवन के चले जाने का भय सामने आ जाए,
तो रहता सिर्फ उसे बचाने का प्रयत्न और बाकी सब बेकार.

मनुष्य जिसे अपने सर्वाधिक विकसित होने का दंभ है,
अंततः वो भी उस प्राणशक्ति का ही एक दास है,
भिखारियों से मूंह फेरने वाला भी कभी भूख से व्याकुल होता है ,
पर नहीं समझता कि उसके अन्दर भी वही आदिम एहसास है.

यदि हर कोई अपने जीवन कि रक्षा करने पे मजबूर है,
तो प्रश्न है कि क्या सही और गलत की एक परिभाषा है,
यदि किसी में वो आत्मज्ञान है जो इस प्राणशक्ति से ऊपर है,
वो मूर्ख है या उसके कारण ही मनुष्यता के लिए कोई आशा है?

Thursday, June 14, 2012

व्याकुलता

किसे बताऊँ कि ह्रदय आकुल क्यूँ है ,
क्या है वो व्यथाएं जो मन को अशांत करती हैं,
किसे कहूं कि बैठो और सुनो,
जो कथाएं मुझको आक्रान्त करती हैं ?

कुछ नहीं है बताने को पर कुछ तो है कहीं,
जो किसी फांस के चुभने जैसा है, 
मन के किसी कोने में ज़रूर है कोई बात,
जो शायद किसी आस के टूटने जैसा है.

कैसे ढूँढूं उस बात को कि डर है और उलझ जाने का, 
कि जैसे एक मायाजाल में फंसते जाना है,
मन के सवालों का अगर जवाब देने की ठानी, 
तो जैसे खुद ही बवंडर के रस्ते में जाना है.

मगर कुछ उत्तर तो ढूँढने ही पड़ेंगे,
इससे पहले कि प्रश्न ही अर्थहीन  हो जाएँ,
कोई और नहीं बता सकेगा क्या है मन के अन्दर,
तो ढूँढने की कोशिश करते हैं स्वयं में लीन हो कर.

Wednesday, June 6, 2012

लम्हे बिताये जो मैंने चाँद के साथ

कल आधी रात में चाँद को खिड़की से झांकते देखा,
पूछा मैने कि क्या कोई और भी मेरी तरह नींद का तलबगार है?
मगर चाँद ने जवाब देने के बदले बादलों की ओट ले ली,
और मैं सोच में पड़ी कि और खिडकियों पे भी किसी को इंतज़ार है.

चाँद फिर बाहर निकला और यूँ लगा कि शायद वो शर्मीला है, 
तो मैने अपना मुँह फेर लिया ताकि वो थोड़ी देर तो रुके,
कि नींद के ना आने तलक  किसी का तो साथ चाहिए,  
और कोई नहीं था तो लगा चलो चाँद को ही तके.

फिर उसी तरह औंधे मुँह मैंने चाँद से बात करी, 
पूछा उससे कि सदियों से वो खिडकियों में झाँक रहा है,
क्या उसने नहीं देखा कि सब में एक सी ही खलिश है, 
क्या नहीं हर कोई कुछ ना कुछ माँग रहा है ?

किसी को तलाश है दौलत की ,
तो कोई एक रोटी का तलबगार है,
किसी को उम्मीद है शोहरत की,
तो कोई मर जाने को तैयार है.

मैंने चाँद से कहा कि एक मेरी भी कुछ अर्जियां है, 
ले जाओ गर पता हो कहाँ पहुंचानी है,
एक तो पहुंचा दो मेरे जैसे किसी तन्हा को कि आ के मिल जाए,
और एक उस को जिसने लिखी हम सब की कहानी है.

और भी बहुत बातें थीं पूछने को चाँद से,
और भी बहुत कुछ था बताने को, 
लेकिन शायद चाँद ने नींद से सांठ-गाँठ रखी थी, 
तो पलकों पे एक बोझ आया - बस उसी पल मुझे सुला जाने को.  

Thursday, May 10, 2012

आत्म-शक्ति

 जीवन में बहुत बार हमें लगता है अब बस-और  नहीं . कभी किसी पहाड़ी  पर चढ़ाई की है? जैसे जैसे ऊपर पहुँचते जाते हैं, पैरों को लगने लगता है कि उनपे पत्थर बाँध  दिए गए हैं , साँसों को लगने लगता है कि उनको रोकने की साज़िश  हो  रही है, दिल  को लगता है कि धड़कन और तेज़  हुई तो पूरी तरह रुक जाने का ख़तरा पैदा हो जाएगा..इन  सब  अंगों के सिग्नलों  के बावजूद , कुछ  तो है जो आगे बढ़ने का हौसला देता रहता है - आपने क्या सोचा ? वो दिमाग है? ना ना  - दिमाग  तो शरीर के सारे संकेतों को सुन  कर आपको रुक  जाने की सलाह देने लगता है। उसका काम  तो शरीर की रक्षा करना है ना? तो फिर क्या है जो कहता है "बस  थोड़ा सा और, ज़रा सा और बढ़ो, अब बस पहुँचने ही वाले हैं"..बस  उसी आवाज़  को सुन कर हम  आगे  बढ़ते जाते हैं ना ? और जब हम उस पहाड़ी के ऊपर पहुँचते हैं तो जो अनूभूति होती है, वो कैसे शब्दों में व्यक्त करूँ? एक उपलब्धि का अनुभव होता है - उस पल में हम सारी परेशानियों को भूल जाते हैं. और साथ ही उस आवाज़ को भी जो रास्ते भर साथ रही. 
         वो जीवन शक्ति कहाँ गयी? एक बार सोच के देखिए - वो कहीं बाहर नहीं है - आपके अंदर ही है. बस जीवन की चढ़ाई में हम उसकी आवाज़ सुनते नहीं हैं - बाहर के शोर पे जो सारा ध्यान रहता है. जब आप किसी पहाड़ी पर चढ़ रहे होते हैं, तो रास्ते में कितनी सारी चीज़ें मिलती हैं - नदी अपने रास्ते बह रही होती है, पेड़ पौधे अपनी जगह पे दोल रहे होते हैं, पंछी अपने खाने -दाने में व्यस्त होते हैं. आप ये सब देखते हैं और इन सब की सुंदरता को अपने मन में रख कर आगे बढ़ते हैं. आप नदी से ये तो अपेक्षा नहीं करते कि वो आपके साथ चलेगी, ना ही सोचते हैं की पेड़ अपने स्थान से हट जाएँगे. तो फिर हम ये अपेक्षा इंसानों से भी क्यूँ करते हैं? और जब वो अपेक्षा पूरी नहीं होती, तो हमें अपना जीवन व्यर्थ लगने लगता है. क्यूँ?
             ये जीवन एक यात्रा ही है - और इसमें बहुत लोग आते हैं और जाते हैं - कुछ जो आपके साथ लंबे समय तक चलते हैं और कुछ बस थोड़े समय के साथी हैं. लेकिन अंततः सब अपनी अपनी यात्रा ही कर रहे होते हैं. जो साथ हैं, उनके साथ के लिए और जो आगे बढ़ गये या पीछे छूट गये, उनके साथ बिताए अच्छे पलों के लिए धन्यवाद . ज़रा सोच के देखिए - क्या जीवन कभी रुकता है? वो तो बस एक नश्वर शरीर से दूसरे में जाता रहता है. और इसी तरह लाखों करोड़ों वर्षों से चल रहा है. हम और आप तो बहुत  छोटे हैं उसके आगे. तो फिर मानना पड़ेगा ना कि वो ही सर्वशक्तिमान है? और वही है ज़ो आपके साथ हमेशा रहती है - वो दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन कठिन पलों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा उसी से मिलती है - ठीक उस पहाड़ी पर चढ़ाई करने की प्रेरणा की तरह. तो फिर ध्यान से सुनिए  उसको - वो कह रही होगी कि "बढ़ो आगे - कोई हार मानने की ज़रूरत नहीं है, और आगे और भी सुंदर नज़ारे मिलेंगे, बस बढ़ते चलो". और बस इसी तरह आपकी यात्रा पूरी होगी.