देखने को जाने कितने नज़ारे हैं इस जहाँ में,
निकल पड़ें तो शायद एक उम्र भी नहीं काफी,
मगर जाने कब गुज़र जाती है वो कुछ काम में,
और कुछ सिर्फ एक हमराही के इंतज़ार में।
लम्हों को तो बस दौड़ लगाने की होड़ है,
और लम्हा लम्हा करते ज़िन्दगी निकल जाती है,
जाने कितने आये और कितने चले गए बिन जिए,
मगर जहाँ देखो मिलते हैं वही गलती दोहराने वाले।
किस बात की ग़लतफ़हमी है उन मसरूफों को,
कि उनके बगैर रुक जाएगा दुनिया का काम धंधा?
ज़रा आँखों को खोल देखेंगे तो तुरंत दिख जाएगा,
कि उनके बिना भी अर्श-औ-फर्श में सब कायम है रहता।
तो फिर क्यूँ नहीं वो कुछ सीखते और ज़िन्दगी जीते हैं,
क्या डरते हैं की कहीं जीने का ना शौक़ आ जाए?
डर है शायद खबर हो जायेगी कि सारी उम्र जाया हो गयी ,
और एहसास होगा कि सिर्फ सांस लेना ही ज़िन्दगी नहीं थी।
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