Sunday, June 17, 2012

प्राण अथवा ज्ञान?


एक रास्ता है जिधर से मुझे रोज़ निकलना होता है
हज़ारों लोग वहां से रोज़ गुज़रते होंगे
लेकिन एक बूढ़ी औरत वहीँ खड़ी रहती है एक लाठी के सहारे,
इस सोच में कि आज जाने लोग उसे क्या देंगे.

वो सबके सामने हाथ फैलाती है
कुछ लोग अनदेखा कर आगे निकल जाते हैं, कुछ जेबें टटोलते हैं,
कुछ वितृष्णा से देखते हैं और कुछ लोग एक सिक्का दे देते हैं
उनके लिए वो हाथ जोड़ एहसान मानती है.

ये पता नहीं जीने की चाह है या फिर कोई बेबसी,
जिसके सामने आत्मसम्मान की मृत्यु हो गयी,
किस तरह मन को समझाया होगा उसने पहली बार हाथ फैलाने को,
जब  भूख की ज्वाला हर तरह से बेकाबू हो गयी.

क्या है ये प्राण शक्ति जो हर जंतु  के अन्दर  है,
जो कि एक समान है चाहे बाह्य तन हो सूक्ष्म या विशाल,
यदि जीवन के चले जाने का भय सामने आ जाए,
तो रहता सिर्फ उसे बचाने का प्रयत्न और बाकी सब बेकार.

मनुष्य जिसे अपने सर्वाधिक विकसित होने का दंभ है,
अंततः वो भी उस प्राणशक्ति का ही एक दास है,
भिखारियों से मूंह फेरने वाला भी कभी भूख से व्याकुल होता है ,
पर नहीं समझता कि उसके अन्दर भी वही आदिम एहसास है.

यदि हर कोई अपने जीवन कि रक्षा करने पे मजबूर है,
तो प्रश्न है कि क्या सही और गलत की एक परिभाषा है,
यदि किसी में वो आत्मज्ञान है जो इस प्राणशक्ति से ऊपर है,
वो मूर्ख है या उसके कारण ही मनुष्यता के लिए कोई आशा है?

Thursday, June 14, 2012

व्याकुलता

किसे बताऊँ कि ह्रदय आकुल क्यूँ है ,
क्या है वो व्यथाएं जो मन को अशांत करती हैं,
किसे कहूं कि बैठो और सुनो,
जो कथाएं मुझको आक्रान्त करती हैं ?

कुछ नहीं है बताने को पर कुछ तो है कहीं,
जो किसी फांस के चुभने जैसा है, 
मन के किसी कोने में ज़रूर है कोई बात,
जो शायद किसी आस के टूटने जैसा है.

कैसे ढूँढूं उस बात को कि डर है और उलझ जाने का, 
कि जैसे एक मायाजाल में फंसते जाना है,
मन के सवालों का अगर जवाब देने की ठानी, 
तो जैसे खुद ही बवंडर के रस्ते में जाना है.

मगर कुछ उत्तर तो ढूँढने ही पड़ेंगे,
इससे पहले कि प्रश्न ही अर्थहीन  हो जाएँ,
कोई और नहीं बता सकेगा क्या है मन के अन्दर,
तो ढूँढने की कोशिश करते हैं स्वयं में लीन हो कर.

Wednesday, June 6, 2012

लम्हे बिताये जो मैंने चाँद के साथ

कल आधी रात में चाँद को खिड़की से झांकते देखा,
पूछा मैने कि क्या कोई और भी मेरी तरह नींद का तलबगार है?
मगर चाँद ने जवाब देने के बदले बादलों की ओट ले ली,
और मैं सोच में पड़ी कि और खिडकियों पे भी किसी को इंतज़ार है.

चाँद फिर बाहर निकला और यूँ लगा कि शायद वो शर्मीला है, 
तो मैने अपना मुँह फेर लिया ताकि वो थोड़ी देर तो रुके,
कि नींद के ना आने तलक  किसी का तो साथ चाहिए,  
और कोई नहीं था तो लगा चलो चाँद को ही तके.

फिर उसी तरह औंधे मुँह मैंने चाँद से बात करी, 
पूछा उससे कि सदियों से वो खिडकियों में झाँक रहा है,
क्या उसने नहीं देखा कि सब में एक सी ही खलिश है, 
क्या नहीं हर कोई कुछ ना कुछ माँग रहा है ?

किसी को तलाश है दौलत की ,
तो कोई एक रोटी का तलबगार है,
किसी को उम्मीद है शोहरत की,
तो कोई मर जाने को तैयार है.

मैंने चाँद से कहा कि एक मेरी भी कुछ अर्जियां है, 
ले जाओ गर पता हो कहाँ पहुंचानी है,
एक तो पहुंचा दो मेरे जैसे किसी तन्हा को कि आ के मिल जाए,
और एक उस को जिसने लिखी हम सब की कहानी है.

और भी बहुत बातें थीं पूछने को चाँद से,
और भी बहुत कुछ था बताने को, 
लेकिन शायद चाँद ने नींद से सांठ-गाँठ रखी थी, 
तो पलकों पे एक बोझ आया - बस उसी पल मुझे सुला जाने को.