Wednesday, June 6, 2012

लम्हे बिताये जो मैंने चाँद के साथ

कल आधी रात में चाँद को खिड़की से झांकते देखा,
पूछा मैने कि क्या कोई और भी मेरी तरह नींद का तलबगार है?
मगर चाँद ने जवाब देने के बदले बादलों की ओट ले ली,
और मैं सोच में पड़ी कि और खिडकियों पे भी किसी को इंतज़ार है.

चाँद फिर बाहर निकला और यूँ लगा कि शायद वो शर्मीला है, 
तो मैने अपना मुँह फेर लिया ताकि वो थोड़ी देर तो रुके,
कि नींद के ना आने तलक  किसी का तो साथ चाहिए,  
और कोई नहीं था तो लगा चलो चाँद को ही तके.

फिर उसी तरह औंधे मुँह मैंने चाँद से बात करी, 
पूछा उससे कि सदियों से वो खिडकियों में झाँक रहा है,
क्या उसने नहीं देखा कि सब में एक सी ही खलिश है, 
क्या नहीं हर कोई कुछ ना कुछ माँग रहा है ?

किसी को तलाश है दौलत की ,
तो कोई एक रोटी का तलबगार है,
किसी को उम्मीद है शोहरत की,
तो कोई मर जाने को तैयार है.

मैंने चाँद से कहा कि एक मेरी भी कुछ अर्जियां है, 
ले जाओ गर पता हो कहाँ पहुंचानी है,
एक तो पहुंचा दो मेरे जैसे किसी तन्हा को कि आ के मिल जाए,
और एक उस को जिसने लिखी हम सब की कहानी है.

और भी बहुत बातें थीं पूछने को चाँद से,
और भी बहुत कुछ था बताने को, 
लेकिन शायद चाँद ने नींद से सांठ-गाँठ रखी थी, 
तो पलकों पे एक बोझ आया - बस उसी पल मुझे सुला जाने को.  

No comments: